शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

मंडेला के देश में चार दिन





  • उर्मिलेश

    हल्की बारिश थमने के बाद जोहान्सबर्ग की पहली रात और खुशनुमा हो गई थी। होटल की खिड़की से देखा, आसमान बिल्कुल साफ था। खूब सारे तारे दिखाई दे रहे थे, जैसे बचपन में अपने गांव वाले घर के आंगन में सोते वक्त अक्सर दिखाई देते थे। याद नहीं, मैंने दिल्ली में कभी ऐसी तारों भरी रात देखी हो। सोचा, सोने से पहले क्यों न होटल के सामने वाली सड़क पर टहलते हुए आसमान और मंडेला स्क्वायर के पास के इलाके का नजारा करें। बाहर थोड़ी ठंड़ थी इसलिए जैकेट डाल लिया। कमरा बंद कर फौरन नीचे आया। बाहर जाने लगा तो होटल-स्टाफ की एक महिलाकर्मी ने मुझे रोकते हुए समझाया, ‘ सर, यहां रात में बाहर निकलना ‘सेफ’ नहीं है। अच्छा होगा, दिन में भी अकेले न निकलें। आपने तो अभी कुछ ही देर पहले ‘चेक-इन’ किया। हिन्दी कांफ्रेंस के लिए इंडिया से आए हैं। आपका सम्मेलन कल सुबह सैंडटन कन्वेंशन सेंटर में शुरू होगा। वह सेंटर भी इसी इलाके में है और वहां तक पहुंचने के लिए आपको होटल से बाहर जाने की जरुरत नहीं है। होटल के अंदर से वहां तक जाने का हवाई-गलियारा(स्काई वाक) बना हुआ है।’ इन हिदायतों को सुनकर थोड़ी देर के लिए वाकई अचरज हुआ। सन 1998-2002 के दौरान न जाने कितनी बार कश्मीर गया। भोजन के बाद रात को श्रीनगर के आ-दूश होटल से बाहर निकलकर रेजीडेंसी रोड पर मजे से टहलता था। सड़क पर कई बार सैनिकों या अर्दधसैनिक बल के जवानों से आमना-सामना होता तो ‘खाने के बाद टहल रहा हूं’ कहते हुए आगे निकल जाता। कई बार वे पूछताछ भी करते। दहशत और आतंक भरे माहौल के बावजूद कभी किसी होटल में हमे बाहर जाने से नहीं रोका गया। दुखी-मन रिसेप्शन के पास पड़े सोफे पर बैठ गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर-मित्र की बात याद आई, जिन्होंने कुछ माह पहले दक्षिण अफ्रीका के दौरे से लौटने के बाद कहा था, ‘जोहान्सबर्ग के हालात अच्छे नहीं। किसी बाहरी आदमी के लिए सड़कों पर आजाद ढंग से चलना मुश्किल हो गया है।‘
    भव्य सितारा होटल की चौदहवीं मंजिल पर मुझे कमरा मिला था। जाने के लिए लिफ्ट को भी अपने कमरे की खास इलेक्ट्रानिक चाभी से चलाना था। दो-तीन बार लिफ्ट के सिस्टम में कार्डनुमा चाभी को अंदर-बाहर करता रहा तब जाकर लिफ्ट चली और कुछ सेकेंड्स में सीधे चौदहवीं मंजिल जाकर रुकी। कमरा खोलने में जो मशक्कत करनी पड़ी वह कुछ कम नहीं। लिफ्ट से ज्यादा वक्त इसमें लगा। बहरहाल, एक बार अनुभव हो जाने के बाद यह प्रक्रिया कठिन नहीं रही। कुछ देर बाद दिल्ली से ही अपने साथ आए एक सज्जन का कमरे में फोन आया। इसी होटल में ऊपर की किसी अन्य मंजिल पर उन्हें कमरा मिला था। उन्होंने मेरे कमरे में आकर गपशप करते हुए चाय पीने की इच्छा जाहिर की। मैंने कहा—‘आ जाइए, इसमें पूछने की क्या बात ?’ वह कहने लगे-‘लेकिन आउंगा कैसे, लिफ्ट तो आपकी मंजिल पर रूक ही नहीं रही है। मैं वहां जाने के लिए अधिकृत नहीं हूं, ऐसी आवाज आ रही है। मैं रास्ते में अटका हूं।‘ मैंने कहा, ‘आपके और हमारे बीच ज्यादा ऊंचाई नहीं है, आप सीढ़ी से आ जाइए।’ मेरे इस सुझाव पर उन्होंने कहा कि ‘कोई सीढ़ी नहीं है, इस होटल में। चारों तरफ देख आया हूं।‘ मैंने कहा, ‘ऐसा कैसे हो सकता है, यह तो फायर-फाइंटिंग नियमावली का उल्लंघन होगा।‘ उन्होंने मायूसी जाहिर करते हुए कहा, ‘ऐसा ही है।‘ तब मुझे उपाय सूझा, मैंने कहा, ‘आप भू तल पर जाइए, वहां मैं आता हूं। वहां से फिर आपको लेकर चौदहवीं मंजिल आ जाऊंगा।‘ अपनी कार्डनुमा चाभी को लेकर मैं नीचे गया और फिर उन्हें लेकर अपने कमरे में आया। सबसे पहले रिसेप्शन को फोन कर जानना चाहा कि नीचे से ऊपर या ऊपर से नीचे के फ्लोर पर किसी मित्र के कमरे में जाना हो तो लिफ्ट को किस तरह चलाएं?’ दूसरी तरफ से जो जवाब मिला वह हैरत में डालने वाला था—‘सर, अपने कमरे से आप सिर्फ नीचे(ग्राउंड फ्लोर) या छठीं मंजिल (जहां से रेस्तरां या स्काईवाक के लिए रास्ता जाता है)पर आ सकते हैं। अन्य मंजिलों पर नहीं। यह सुरक्षा बंदोबस्त हमने अपने होटल में रहने वाले गेस्ट्स की सुरक्षा के मद्देनजर किया है।‘ लगभग घंटे भर गपशप के बाद जब वह अपने कमरे की तरफ जाने लगे तो मैने पूछा, ‘जाएंगे कैसे?‘ उन्होंने कहा, ‘वही तरीका अपनाएंगे, नीचे जाकर फिर अपनी मंजिल पर आने का।‘ मैं उन्हें छोड़ने लिफ्ट तक गया। वहां अचानक मेरी नजर बाईं तरफ एक ऐसे दरवाजे पर गई, जिसमें कोई लाक-सिस्टम नहीं नजर आ रहा था। मेंने उनकी तरफ इशारा किया, वो देखिए। फिर हम दोनों वहां गए। पता चला, यह सीढ़ियों का दरवाजा है। लेकिन उस पर न तो कुछ लिखा था और न ही निकास या सीढ़ी होने का कोई संकेत दिया हुआ था। मैंने कहा, ‘महाशय, इतनी मेहनत से खोजे रास्ते का अब आप उपयोग करें।‘ वह सज्जन सीढियों के रास्ते अपने कमरे की तरफ गए और मैं अपने कमरे में आकर दक्षिण अफ्रीकी मुक्ति संग्राम के बारे में एक पुराना लेख पढ़ने लगा, जो घर से रवाना होते समय पुरानी पत्रिकाओं के मेरे घटते-बढ़ते कलेक्शन में मिल गया था।
    अपने छात्र-जीवन और फिर पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में हमने दक्षिण अफ्रीका के बारे में काफी कुछ पढ़ा था। दुनिया के पैमाने पर उन दिनों की तरक्कीपंसद युवा पीढ़ी के जो कुछ बड़े महानायक थे, उसमें नेल्सन मंडेला एक महत्वपूर्ण नाम था। दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्रावासों के कमरों में हमारे कई मित्रों ने तो लेनिन, चे या कास्त्रो के साथ मंडेला की तस्वीर भी लगा रखी थी। एक योद्धा, जिसने अपने जीवन के सर्वोत्तम 27 साल दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी-नस्लभेदी सरकार की जेल में बिता दिए। सच पूछिए तो विश्व हिन्दी सम्मेलन में शामिल होने का भारत सरकार का जब निमंत्रण मिला तो मैं थोड़े असमंजस में रहा क्योंकि महज चार दिन पहले ही डेनमार्क के सात-दिवसीय दौरे से लौटा था। पर जोहान्सबर्ग जाने की मन में इच्छा भी थी। सम्मेलन के बहाने हमें मंडेला का देश देखने का मौका मिलेगा। एक ऐसा देश, जहां रंग व नस्ल आधारित भेदभाव और जुल्म से लड़ते हुए मोहनदास करमचंद गांधी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के महात्मा गांधी बने। अस्वस्थ चल रहे बुजुर्ग मंडेला को देखने का सौभाग्य तो शायद न मिले पर उस महान योद्धा की निशानियां जरूर दिखेंगी। और यही सब सोचते हुए मैंने जोहान्सबर्ग जाने की तैयारी शुरू कर दी। दो दिन के अंदर ही यात्रा की सरकारी-औपचारिकताएं पूरी हो गईं। 21 सितम्बर की सुबह अमीरात-एयरलाइंस की उड़ान से दुबई होते हुए जोहान्सबर्ग के लिए रवाना हुआ। विमान में सम्मेलन के कई लेखक-प्रतिनिधि सवार थे। राजनेता और अफसर शायद पहले ही जा चुके थे। दुबई से हमें उसी एयरलाइंस के दूसरे विमान से जोहान्सबर्ग के लिए उड़ना था। बीच में लगभग डेढ़ घंटे का अंतराल था। इस दौरान हम लोग दुबई हवाई अड्डे के विशाल शापिंग कांप्लेक्स में घूमते-फिरते रहे। शापिंग कांप्लेक्स की एक खास बात है कि यहां सिर्फ शराब, चाकलेट और कपड़े की ही दुकानें नहीं हैं, सोना, चांदी, हीरे और अत्याधुनिक इलेक्टानिक सामान भी यहां बिकते हैं। योजना बनाकर आए कुछ सम्पन्न लोग सोने की दुकानों पर मोल-भाव करते दिखे। कुछ ने खरीदा भी।
    दुबई से लगभग आठ घंटे लंबी उड़ान के बाद हम जोहान्सबर्ग हवाई अड्डे पर उतरे तो वहां रात हो गई थी। हल्की बारिश से माहौल में थोड़ी ठंड थी। प्रिटोरिया स्थित भारतीय उच्चायोग की तरफ से हवाई अड्डे पर जूनियर अधिकारियों की एक टीम आई थी। उस फ्लाइट से लगभग पचास-साठ डेलीगेट आए थे। कौन-किस होटल में रुकेगा, इसका चार्ट पहसे से बना हुआ था। उसे देखकर हम लोगों को बसों में बैठाया जा रहा था। मेरा अलाटमेंट सैंडटन इलाके के एक सितारा होटल में था। लगभग चालीस मिनट के इंतजार के बाद हमें बस से होटल ले जाया गया। बारिश में धुली सड़कें और चमक रही थीं। रास्ते में साधाऱण मकानों से लेकर आलीशान बिल्डिंगें थीं। हरियाली कम थी पर महानगर साफ-सुथरा दिख रहा था। दक्षिण अफ्रीका के बारे में पढ़ रखा है कि वह सोना, हीरा, प्लैटिनम और कोयला सहित तरह-तरह के बेशकीमती खनिजों से भरा देश है। पर वहां के ज्यादातर लोग भारत की तरह ही गरीब और बदहाल हैं। लेकिन हवाई अड्डे से होटल के रास्ते में हमें विपन्नता की तस्वीर नहीं दिखी, जैसी आमतौर पर अपने भारत में नगरों-महानगरों की चकाचौंध के बावजूद इधर-उधर दिख ही जाती है। दूसरे-तीसरे दिन जोहान्सबर्ग के अंदरुनी हिस्से में और सोवैटो जाते वक्त यहां के समाज की जो तस्वीर हमने देखी, वह उतनी गुलाबी नहीं थी। कई तस्वीरें तो डरावनी थीं। इसकी शुरुआत पहले ही दिन होटल के रिसेप्शन से हो गई थी। प्रवास के दूसरे दिन पता चला कि सम्मेलन में दिल्ली से आए सरकारी अधिकारियों के एक समूह पर हमला हुआ। हमलावरों ने उनके पास जो भी पाया, लूट लिया। यह सब नेल्सन मंडेला स्क्वायर के आसपास ही घटित हुआ। जो बातें अब तक सुनते आए थे, वह हमारे सामने दर्ज हो रही थीं। छीना-झपटी में कुछ लोगों को चोट भी लगी। गनीमत कि उनके पासपोर्ट और बेशकीमती सामान नहीं गए। लेकिन इस तरह की बुरी खबरों से हम ज्यादा प्रभावित नहीं हुए। सुबह की सैर का सिलसिला हमने जारी रखा।
    दक्षिण अफ्रीका में कानून व्यवस्था, लूटपाट और संगठित अपराध की हकीकत अपने विकराल चेहरे के साथ 23 सितम्बर को हमारे सामने आई। बीती रात, ब्रीट्स में देश के मशहूर खेल-शख्सियत और पूर्व विश्वविजेता हेवीवेट मुक्केबाज कोर्री सैंडर्स को एक रेस्तरां में अपने भतीजे का 21वां जन्मदिन मनाते समय गोलियों से भून दिया गया। रेस्तरां से बाहर निकलते वक्त तीन हमलावर वहां मौजूद सभी लोगों के बैग, सेलफोन और पर्स आदि लेते गए। गोलियों से छलनी होने के बावजूद सैंडर्स अपनी बेटी, भतीजे और अन्य बच्चों को बचाने में लगा रहा। अंततः 23 सितम्बर की सुबह चार बजे प्रिटोरिया के एक अस्पताल में सैंडर्स ने दम तोड़ दिया। अगले दिन जोहान्सबर्ग के अखबारों में छपी इस खबर में दक्षिण अफ्रीका का लहूलुहान चेहरा झांकता रहा। यह दीगर बात है कि खबर को उतनी प्रमुखता नहीं मिली, जिसकी वह हकदार थी। देश के एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ने तो उसे अपने दूसरे पेज पर छापा।
    अभी एक दिन पहले ही मैं शहर के पुराने इलाकों में गया था। मेरा टैक्सी डाइवर बार-बार मुझे हिदायत देता था, गाड़ी से उतरो नहीं, सारी चीजें अंदर से ही देखते जाओ। तब मुझे उसकी यह सतर्कता कुछ ज्यादा ही लग रही थी। सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के बाद मैं शहर घूमने निकल गया था। मुझे लगा, बाहर जाकर असली शहर का जायजा लेना चाहिए ताकि पंचसितारा होटलों और जोहान्सबर्ग के अमेरिकी अंदाज में बने नए व्यावसायिक इलाके से दूर पुराने शहर का चेहरा और आम जिन्दगी की जद्दोजहद दिखे। इसके लिए एक भरोसेमंद टैक्सी वाले की जरुरत थी। होटल के बिल्कुल सामने एक टैक्सी वाले से मुलाकात हो गई। वह किसी गेस्ट को होटल छोड़कर लौट रहा था और मैं दोपहर के भोजन के बाद नीचे आया हुआ था। मैंने उससे पूछा, ‘ मैं एक इंडियन जर्नलिस्ट हूं। शहर, उसके अंदर की कालोनियों और साधारण लोगों की बस्तियों को देखना चाहता हूं। क्या आप मुझे ले चलेंगे?‘ किराए और यात्रा की समय-सीमा पर संक्षिप्त बातचीत के बाद वह फौरन तैयार हो गया। मैं अपने कमरे में गया और पंद्रह मिनट में तैयार होकर नीचे आ गया। साथ चलने के लिए एक अन्य गैर-पत्रकार मित्र तैयार हो गए। शहर के पाश इलाकों से गुजरते हुए हम डाउन-टाउन और फिर गरीब लोगों की बस्तियों की तरफ गए। अपने देश के इंदिरा आवास के नाम पर बने दरबे-नुमा आवासों की तरह के कुछ मकान भी देखे। हालांकि इन मकानों की गुणवत्ता अपने देश के इंदिरा आवासों से बेहतर थी। इनमें यहां के साधारण गरीब लोग रहते हैं। यहां बेहाली और गुरबत का साया था। कई घरों में हमने देखा, बूढ़े-बुढियां लाचार पड़े थे। उनके जवान बेटे-बेटियां कुछ कमाने के नाम पर बाहर निकले हुए थे। इस तरह की बदहाल-जिन्दगियों से कुछ ही दूरी पर नए-पुराने धनिकों की चमकीली दुनिया थी, कांटेदार तारों से घिरी ऊंची अट्टालिकाएं, अत्याधुनिक सामानों से भरे शापिंग काम्पलेक्स, सिनेमा, नाचघर और न जाने क्या-क्या! डाउन-टाउन में हमें कई नाच-घर या मनोरंजन केंद्र दिखे। बाकायदा उनके बैनर-पोस्टर भी टंगे थे। मेरे टैक्सी-वाले ने बताया कि इनमें हर तरह का धंधा होता है। टैक्सी वाले और मेरे बीच इस यात्रा के दौरान काफी कुछ बातें हो चुकी थीं। हम दोनों ने एक दूसरे को थोड़ा-बहुत समझ लिया था। उसे भरोसे में लेकर मैंने पूछा, ‘आप बार-बार मुझे गाड़ी से उतरकर सड़क या फुटपाथ पर चलते लोगों से बातचीत करने से रोक रहे हो, क्या वजह है। ये लोग तो अच्छे मालूम होते हैं, फिर क्या डर है?‘ उसने मुझे समझाने के अंदाज में कहा, ‘असल में आप समझ नहीं सकते कि उनमें कौन क्या और कैसा है, जबकि वो समझ रहे हैं कि आप कौन हो। उन्हें इस बात से मतलब नहीं कि आप अमेरिकन हो या इंडियन, ज्यादा अमीर हो या साधारण। उनके लिए यही पर्याप्त है कि आप पर्यटक हो, किसी बाहरी देश के पासपोर्ट वाले हो और आपकी जेब में कुछ रैंड(दक्षिण अफ्रीकी मुद्रा) या डालर होंगे। यह सब हासिल करने के लिए खुराफाती लोग आपको पकड़ सकते हैं, आप पर हमला कर सकते हैं और जरुरत के हिसाब से चाकू भी चला सकते हैं। सब जगह यह समस्या नहीं है पर इन इलाकों में है। आप प्रिटोरिया जाइए, वहां ऐसा माहौल नहीं है।‘ मैंने वेबसाइट पर पढ़ी एक खबर का हवाला देते हुए पूछा, ‘लेकिन कुछ ही दिनों पहले प्रिटोरिया के बाहरी इलाके में एक पैतीस वर्षीय गोरा दक्षिण-अफ्रीकी नागरिक ‘श्वेत-विरोधी घृणा अभियान’ का शिकार हो गया। उसका बच्चा अपने बाप को मरते हुए देखता रहा। ऐसा क्यों है?’ डाइवर भले ही कम पढ़ा-लिखा रहा हो पर मैने महसूस किया, वह बेहद संजीदा और समझदार था। उसने कहा, ‘ आप किस खबर की बात कर रहे हैं, मुझे नहीं मालूम। लेकिन यह बात सही है कि सन 1994 में सत्ता बदलने के बाद हम अश्वेत लोगों के कुछ हिस्सों में गोरों से बदला लेने की मानसिकता पैदा हुई है। यह बहुत बुरी बात है। एक जमाना था, जब हम कालों को वोट का अधिकार तक नहीं था। हमने जुल्म के खिलाफ लड़ाई जीती। संकल्प लिया गया कि रंगभेद-नस्लभेद का शासन खत्म होने के बाद दोनों तरह के लोगों-काले और गोरों को अब साथ रहना है और देश को मजबूत बनाना है। पर ऐसा नहीं हो पा रहा है। यह बहुत बड़ी समस्या है, हमारे देश की।’ उसकी आत्मस्वीकृति में ईमानदारी थी।
    दक्षिण अफ्रीका की यह समस्या विकट होती गई है। राजनीतिक-भाषणबाजी के अलावा इसे संभालने की ठोस कोशिश नहीं की जा रही है। दोनों समुदायों के बीच इतनी लंबी खाई पैदा हो चुकी है कि उसे पाटना फिलहाल संभव नहीं दिख रहा है। इसके पीछे निश्चय ही तमाम तरह के निहित स्वार्थ सक्रिय हैं। नेल्सन मंडेला सहित सभी प्रमुख विचारक पहले से कहते आ रहे हैं कि दक्षिण अफ्रीकी राष्टवाद के विकास का रास्ता अब अश्वेत और गोरे अफ्रीकियों की एकता की जमीन से ही गुजरेगा। दोनों को एक होकर आगे बढ़ना होगा। पर इसे अमलीजामा पहनाने की बड़ी चुनौतियां हैं। मंडेला-कार्यकाल में जिन आर्थिक-नीतियों की बुनियाद पड़ी, वह आगे जाकर समस्याओं का समाधान करने की बजाय स्वयं समस्या बन गई। अब तो उनके कई पक्के समर्थक भी कहने लगे हैं कि पहले गरीबी और असमानता खत्म करने पर जोर दिया जाना चाहिए था। सामाजिक, जातीय और नस्लीय अतंर्विरोधों को तब बेहतर ढंग से हल किया जा सकता था। अर्थव्यवस्था में अत्यधिक निजीकरण पर जोर ने धन-सम्पत्ति के संकेद्रण को और बढ़ा दिया है। राजनीतिक सत्ता मुट्ठी भर लोगों के हाथों में केंद्रित है। तेजी से बढ़ रही आर्थिक गैर-बराबरी ने सामाजिक अंतर्विरोधों को तीखा किया है। पहले बड़े स्तर पर राष्टीयकरण की प्रक्रिया चलनी चाहिए थी। इससे दरिद्रता और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को हल किया गया होता। पर सरकार ने यहां निजीकरण-आधारित पूंजीपरस्ती का रास्ता चुना। गरीबों के लिए कुछ योजनाएं लाई गईं। पर ये कथित कल्याणकारी योजनाएं ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रही हैं। दक्षिण अफ्रीका में इस वक्त बेरोजगारी 24 फीसद की दर से बढ़ रही है। लगभग साढ़े पांच करोड़ आवादी वाले देश के 90 फीसद अश्वेत गरीब हैं। सरकार दावा करती है कि गरीबों की बड़ी आबादी शासन द्वारा शुरु की गईं कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पा रही है और उसका जीवन स्तर बेहतर हुआ है। लेकिन अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के अपेक्षाकृत रेडिकल युवा नेता, सहयोगी गुट और विपक्षी दल सरकार के दावे को खारिज करते हैं। पिछले दिनों अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की यूथ लीग के अध्यक्ष जूलियस मलेमा को पार्टी से निकाल दिया गया। यूथ लीग और कई अन्य समूहों के रेडिकल नेताओं का कहना है कि सरकार जब तक खदानों का राष्टीयकरण करके बड़े नीतिगत फैसले नहीं करती तब तक बढ़ती बेरोजगारी, गरीबी और गैरबराबरी जैसी बड़ी समस्याओं से निजात नहीं मिलेगा। कई गुटों और नेताओं ने मांग की है कि सरकार 60 फीसदी खदानों का मुआवजा दिए बगैर राष्टीयकरण करे। इनमें यूथ लीग नेता भी शामिल हैं। जूलियस स्वयं भी कम विवादास्पद नहीं हैं। उन पर भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं। पर एएनसी में जूमा-विरोधी खेमे के कई प्रमुख नेता इन दिनों उनका साथ दे रहे हैं। कम्युनिस्टों का खेमा शुरू से यह मांग करता रहा है। इन दिनों इस खेमे का समर्थन बढ़ रहा है। उधर, सरकार खदानों के राष्ट्रीय़करण की मांग को नकारात्मक विचार मानती है। उसका कहना है कि इससे आर्थिक सुधारों का सिलसिला थम जाएगा। देश में सक्रिय ज्यादातर थिंक-टैंक और एनजीओ भी सरकार की हां में हां मिला रहे हैं। इस तरह के संगठनों को अमेरिका और यूरोपीय देशों से काफी मोटे अनुदान मिलते हैं।
    हमारी गाड़ी एक पुराने इलाके की तरफ बढ़ रही है। जोहान्सबर्ग के नए इलाकों से यह काफी अलग है। सड़क से महज दस-पंद्रह मीटर की दूरी पर पीले-मटमैले रंग के एक ऊंचे टीले और उसके चारों तरफ लगे कंटीले तारों को दिखाते हुए मैंने अपने डाइवर से पूछा, ‘यह क्या है?‘ उसने कहा, ‘सोने की खदान। यहां अब खुदाई नहीं हो रही है। पर थोड़े-बहुत सोने अब भी मिलते रहते हैं।‘ मैंने पूछा, ‘यह खदानें अब सरकार या स्थानीय अफ्रीकी लोगों के पास होंगी!‘ उसने मुस्कराते हुए कहा, ‘यही तो समस्या है। इनका राष्टीयकरण नहीं हो सका। ज्यादातर सोने की खदाने बड़े निगमों और देश-विदेश के धन्नासेठों के पास ही हैं। इनमें काम करने वाले, खासकर खदान-मजदूर गरीब अफ्रीकी लोग हैं। इनकी तनख्वाह बहुत कम होती है। इससे इनमें भारी नाराजगी है।‘
    यहां आने से पहले भारत में ही मैंने किसी अखबार या वेबसाइट पर पढ़ा था कि कैसे हाल में दक्षिण अफ्रीका के लॉनमिन प्लैटिनम खदान क्षेत्र के मजदूरों पर पुलिस या अर्द्धसैनिक बल ने गोलियां चलाईं, इसमें 34 लोग मार डाले गए। इस गोलीकांड ने रंगभेदी सरकारों के निरंकुश शासन के दिनों की याद ताजा कर दी। मैंने डाइवर से इस बाबत पूछा, ‘सुना है, हाल में प्लैटिनम खदान वाले एक इलाके में हड़ताल तोड़ने के लिए पुलिस ने गोली चलाकर 34 लोगों को मार डाला।‘ उसने मेरी तरफ देखा और कहा, ‘ सर, बहुत बड़ा गोलीकांड था। वहां अब भी शांति नहीं है। सरकार पूरी तरह मालिकों के साथ है। मजदूर लाचार हैं।‘ मैं अपने मोबाइल पर नेट खोल कर उस घटना का ब्यौरा ढूढ़ने लगा। 16 अगस्त की इस नृशंसता पर दक्षिण अफ्रीकी सरकार को कोई अफसोस नहीं है जबकि दो खदान-क्षेत्रों में अब तक कुल 47 लोग मारे जा चुके हैं। इसमें अफ्रीकी नेशनल कांफ्रेंस की एक महिला कौंसिलर भी शामिल हैं, जिनकी मौत पुलिस की गोली से उस वक्त हुई, जब वह बाजार में कुछ खरीदने गई हुई थीं।
    राष्टपति जैकब जूमा के कार्यालय ने 21 सितम्बर, यानी जिस दिन हम जोहान्सबर्ग पहुंचे, बाकायदा फैसला किया कि सरकार खदान मजदूरों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए पुलिस की मदद में अब सेना भेजेगी। ‘इंटरनेशनल हेराल्ड टिब्यून’ ने वर्ल्ड न्यूज के अपने पेज पर इस खबर को सरकारी सूत्रों के हवाले छापा है-‘दक्षिण अफ्रीकी संविधान की धारा 201(1) के तहत प्लैटिनम खदान मजदूरों के प्रतिरोध-संघर्ष को कुचलने के लिए सरकार ने सेना को मरिकाना इलाके में तैनात करने का फैसला किया है ताकि वह स्थानीय पुलिस की मदद कर सके। सरकार के मुताबिक मजदूरों के आंदोलन से इलाके में कानून-व्यवस्था का संकट पैदा हो गया है। यह इलाका जोहान्सबर्ग के पश्चिमोत्तर में है।‘ होटल लौटने पर मैंने एक स्थानीय पत्रकार से इस बारे में बातचीत की तो पता चला कि खदानों का प्रबंधन ही नहीं, राष्टपति जूमा भी मजदूरों की वाजिब मांगों को सिरे से खारिज कर रहे हैं। इससे लोगों में नाराजगी है। मजदूरों की मांग है कि उनकी महीने की तनख्वाह कम से कम 16000 रैंड की जाय। अभी उन्हें बामुश्किल 7000 से 8000 रैंड मिलते हैं, जो यहां के जीवन-स्तर और महंगाई को देखते हुए बेहद कम हैं।
    जोहान्सबर्ग के पाश इलाकों की कांटेदार तारों और इलेक्टानिक सुरक्षा-बंदोबस्त से घिरी बड़ी-बड़ी कोठियां श्वेतों की ही हैं। वे अपने घरों से अपनी लंबी चमचमाती गाडियों में या सुरक्षाकर्मियों के साए में ही निकलते हैं। सुबह सैर करते समय मैंने कई गोरे युवक-युवतियों के झुंड देखे, जो जागिंग कर रहे थे। मैंने एक स्थानीय सुरक्षाकर्मी से पूछा, ‘ये कौन लोग हैं, पर्यटक या स्थानीय लोग?’ उसने कहा, ये पास की कालोनी के यहूदी लोग हैं, जो बड़ी-बड़ी कोठियों में रहते हैं। इनके पास बड़े-बड़े बिजनेस हैं। असुरक्षित महसूस करने के चलते वे सुबह की सैर पर भी समूह में ही निकलते हैं। आमतौर पर उनके साथ सादी वर्दी वाले निजी सुरक्षाकर्मी भी होते हैं। सिर्फ श्वेतों या पर्यटकों के लिए ही नहीं, संपूर्ण जनता के लिए आज जोहान्सबर्ग में अपराध और भ्रष्टाचार, दो बड़ी चुनौतियां हैं। भ्रष्टाचार के मामले में दक्षिण अफ्रीका अपने देश की तरह ही नजर आता है। उनके नेता-अफसर भी मालामाल हैं। हालांकि भ्रष्ट देशों की सूची(ट्रांसपरेसी इंटरनेशनल द्वारा जारी) में दक्षिण अफ्रीका की स्थिति भारत से थोड़ी बेहतर है। अपने देश में अभी लोकपाल नहीं है लेकिन प्रिटोरिया में बाकायदा ‘पब्लिक प्रोटेक्टर’ नाम से एक संस्था काम कर रही है, जिसका मुख्य मकसद भ्रष्टाचार-निवारण है। इस संस्था की सक्रियता से ही सन 2010 देश के मुख्य पुलिस आयुक्त जैकी सेलेबी, जो इंटरपोल के प्रमुख भी रह चुके हैं, को भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराकर दंडित किया गया। उन पर एक क्राइम सिंडिकेट के सरगना से 1 लाख 20 हजार रैंड रिश्वत लेने सहित कई गंभीर आरोप थे। इसकी जांच के दायरे में कुछ मंत्री भी आए हैं। वैसे ही जैसे अपने देश में भी यदा-कदा कुछ(कम असरदार) नेता-अफसर भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के तहत जेल चले जाते हैं। हमारी सीबीआई और सीवीसी की तरह दक्षिण अफ्रीकी सरकार में भी स्पेशल इन्वीस्टिगेटिव यूनिट और नेशनल प्रासीक्यूटिंग अथारिटी जैसी संस्थाएं काम कर रही हैं। पर बढ़ती गैर-बराबरी, संगठित व छिटफुट अपराध और भ्रष्टाचार ने व्यवस्था के छिद्रों को और बड़ा कर दिया है। सन 94 के सत्ता-हस्तानांतरण के बाद समाज में समरसता , समता और उदारता का सपना देखा गया था लेकिन वह अंदर ही अंदर लगातार बिखरता गया है। बड़ी ताकतों एवं विश्व बैंक-आईएमएफ संपोषित आर्थिक सुधारों के दौर में जिस तरह असमानता बढ़ रही है और रोजगार बेहद सीमित हैं, उससे समाज में नए तरह की जटिलता आई है। असंतोष और अराजकता में भारी इजाफा हुआ है। जोहान्सबर्ग में सड़क चलते विदेशी पर्यटकों के साथ मारपीट या लूटपाट की वारदात के पीछे की असल कहानी यही है। पर्स छीनने या बटुआ लूटने वाले बेरोजगार युवाओं की बढ़ती फौज के लिए वे बड़े लोग जिम्मेदार हैं, जो सूट-बूटधारी विदेशी-लुटेरों के साथ मिलकर सोने और बहुमूल्य खनिजों से भरी इस धरती को दोनों हाथों से लूट रहे हैं और यहां की अकूत सम्पदा का एक बड़ा हिस्सा विदेशी महाप्रभुओं, बैंकों और कंपनियों के हवाले कर रहे हैं।
    अगले दिन हम सोवैटो गए, वही सोवैटो, जो रंगभेदी निरंकुश शासन के दौर में अफ्रीकी मुक्ति संग्राम का सबसे महत्वपूर्ण मुकाम हुआ करता था। उन दिनों प्रिटोरिया का मतलब रंगभेदी निरंकुश सरकार का मुख्यालय और सोवैटो का मतलब नेल्सन मंडेला के नेतृत्व वाले मुक्ति संग्राम का केंद्र था। सन 1976 मंस यहां जबर्दस्त जनविद्रोह हुआ था। इसकी शुरुआत छात्र-युवाओं ने की। वे अपनी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी की बजाय अफ्रीकी भाषाओं को बनाने की मांग कर रहे थे। 16 जून, 76 को निरंकुश सरकार ने युवाओं के एक जुलूस पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं, जिसमें 200 से अधिक लोग मारे गए थे। उसके बाद जनविद्रोह और भड़क उठा। इसे ‘सोवैटो-अपराइजिंग’ के नाम से जाना जाता है।
    सोवैटो के दौरे में हम चार लोग थे। पटना से आए कवि अरुण कमल, कथाकार ह्रषिकेश सुलभ और भोपाल से आए व्यंग्यकार डा. ज्ञान चतुर्वेदी। उस दिन हमने एक बड़ी गाड़ी ली, जिसमें कम से कम छह लोग बैठ सकते थे। चूंकि इस बार गाड़ी होटल के जरिए ली इसलिए थोड़ी महंगी थी। पर डाइवर बहुत समझदार आदमी था। वह अपने देश के भाषा आंदोलन का कार्यकर्ता रह चुका था। जोहान्सबर्ग के प्रमुख इलाकों से गुजरते हुए वह हमें सोवैटो ले गया। इनमें नेल्सन मंडेला संस्थान और उनका निवास भी शामिल थे। लगभग बीस लाख आबादी वाले सोवैटो पहुंचकर हमे पहली बार देसीपन का एहसास हुआ। देसी-मकान, देसी दुकान, देसी वाइन-रम और देसी लोग। नगर में एक तरफ निजी मकान हैं तो दूसरी तरफ 99 साल की सरकारी लीज वाले आवास। सोवैटो की सड़कों के किनारे ‘बुजेला’ के रंग-बिरंगे माडल लगे हैं। बुजेला पारंपरिक अफ्रीकी वाद्ययंत्र हैं। ये अपने देश के तुड़कों, धुधकों या तुरहों जैसे हैं। अफ्रीकी संस्कृति और सोवैटो के ठेठ देसी-अंदाज का ये चित्र पेश करते हैं। लेकिन सोवैटो में वह गर्मजोशी नहीं दिख रही है, जिसकी हमने यहां आने से पहले कल्पना की थी। सड़क, दुकान और मकान, कहीं भी लोगों में अपना शासन पा लेने का उत्साह नजर नहीं आता। सड़क किनारे एक वाइनशाप से हमने वाइन की कुछ बोतलें और खाने का सामान खरीदा। वाइन खरीदते समय हमने (मैं और ह्रषीकेश सुलभ) देखा, कुछ अधेड़ और बुजुर्ग लोग सस्ती देसी शराब पीकर उदास बैठे हैं। कुछ के सामने खाली बोतल पड़े थे। शाप में हमारे ड्राइवर एबी भी साथ थे। हम लोग जहां भी गाड़ी से उतरते, वह हमारे साथ-साथ रहते। उनके कहे बगैर हम उनकी भलमनसत और सतर्कता को अच्छी तरह महसूस कर रहे थे। जब हम अपना सामान लेकर बाहर निकलने लगे तो हमने वहां टुन्न होकर बैठे स्थानीय जनों का अभिवादन किया। उन्होंने आदर के साथ उसका जवाब दिया।
    स्वदेश रवाना होने से एक दिन पहले यानी 24 सितम्बर को हम प्रिटोरिया गए, जो जोहान्सबर्ग के पास ही है। जोहान्सबर्ग से जिस रास्ते हम प्रिटोरिया गए, वह काफी चौड़ा है। हमारे डाइवर ने बताया कि यही सड़क जिम्बाव्वे के हरारे चली जाती है। दूसरी तरफ मोजाम्बिक का रास्ता है। आसपास की तांबई-ललछौंवी पथरीली जमीन के बीच से गुजरती काली-चौड़ी सड़क पर हमारी गाड़ी सौ कि.मी. प्रति घंटे की गति से दौड़ रही है। प्रिटोरिय़ा में दाखिल होने से पहले ही हमारी गाड़ी एक भव्य स्मारक के पास रुकती है। यह वोरट्रेकर स्मारक है। हालैंड से दक्षिण अफ्रीका आने वाले गोरों की याद में यह स्मारक बना है। दक्षिण अफ्रीका में डच लोगों का पहला जत्था सन 1652 में आया था। सबसे पहले उन्होंने केपटाउन में लंगर डाला और फिर अंदर दाखिल हुए। हालैंड से आए गोरों को भारत जाने के रास्ते में केपटाउन सही मुकाम नजर आया। उन्हें जल्दी ही समझ में आ गया कि अफ्रीकी लोगों का यह देश खनिजों से भरा पड़ा है। अपनी केप बस्ती छोड़कर गोरों के जत्थे खनिजों की खोज में पूरी तैयारी के सन 1835-1854 के दौरान देश के अंदर घूमने लगे। शायद उन्होंने ही पहली बार यहां सोने और अन्य खनिजों की तिजारत शुरू की। यह समारक खनिजों के खोज-अभियान में निकले गोरों की याद में सन 1949 में बना था। हर साल, 16 दिसम्बर को यहां बड़ा समारोह होता है। स्मारक के एक कोने में अंद्रीस प्रिटोरस की भी मूर्ति बनी हुई है। इसी के नाम पर शहर का नाम प्रिटोरिय़ा पड़ा। सन 94 के बाद प्रिटोरिया का नाम बदलने की मांग भी उठती रही है। लेकिन एएनसी नेताओं और सरकार ने नाम बदलने की मांग को लगातार खारिज किया है। एक बात अच्छी लगी कि कुछ छिटफुट अनुदार मांगों-टिप्पणियों के बावजूद गोरों के स्मारक को लेकर सरकार और आम अश्वेत लोग भी उदार और सहिष्णु हैं। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू चिंता जगाता है, जहां गावों-कस्बों-शहरों और खदान क्षेत्रों में गरीबी, लाचारी, बेबसी, अराजकता और अपराध का साया लगातार बढ़ रहा है। श्वेतों का रवैया इस मुद्दे पर सकारात्मक नहीं है। उनकी चिंता सिर्फ अपनी कंपनियों, जमीन-जायदाद और पूंजी विस्तार के संरक्षण की है। देश की अश्वेत आबादी के मसलों से वे अपने को बिल्कुल काटकर देख रहे हैं। एक ही देश में दोनों की अलग-अलग दो दुनिया है।
    जोहान्सबर्ग और प्रिटोरिया, ट्विन-सिटी कहे जाते हैं पर अपने हैदराबाद-सिकन्दराबाद जैसे बिल्कुल जुड़े नहीं हैं। दोनों के बीच लगभग चालीस मिनट की डाइव है। ज्यादातर राजकीय कामकाज प्रिटोरिया से होता है। लेकिन संसद अब केपटाउन में है। राजधानी छह महीने यहां और छह महीने केपटाउन होती है। सभी देशों के दूतावास आदि प्रिटोरिया में ही हैं।
    यहां का माहौल थोड़ा अलग दिखा। आज सोमवार है लेकिन नेशनल हेरिटेज डे की छुट्टी है और लोग शहर के पार्कों में उमड़ पड़े हैं। यहां जोहान्सबर्ग की तरह माहौल में लूट-पाट की दहशत नहीं है। सचिवालय और पार्लियामेंट की बिल्डिंगें अंग्रेजों के जमाने में हमारे यहां बनी सरकारी इमारतों की तरह भव्य हैं। इनके ठीक नीचे की सड़क के एक किनारे छुट्टी के दिन आज हस्तशिल्प और अन्य सजावटी सामानों का बाजार सजा है। ज्यादातर दुकानों को औरतें संभाल रही हैं। इनमें ज्यादातर बीस से तीस वर्ष के बीच की युवतियां हैं। बहुत तेज तर्रार और हंसमुख हैं। सामानों के दाम को लेकर अपने चांदनी चौक या करोलबाग की तरह मोलतोल चल रहा है पर एक सीमा के बाद ये लड़कियां दाम पर अडिग हैं। सामान बिके या नहीं, ग्राहकों के साथ इनका व्यवहार बहुत मीठा है। कीमत ज्यादा होने या किसी अन्य बहाने सामान नहीं खरीदने वालों को भी यह लड़कियां ‘बाय’ कहकर विदा करती हैं।
    सोवैटो से लेकर जोहान्सबर्ग के आसपास के शहरी और ग्रामीण इलाकों के हालात देखने के बाद मुझे लगा दक्षिण अफ्रीका की अश्वेत जनता ने सन 1994 के महान सत्ता-हस्तानांतरण के बाद वास्तविक आर्थिक-राजनीतिक क्रांति का जो सपना देखा था, वह लगातार टूट रहा है। पहले राष्टपति के तौर पर नेल्सन मंडेला के कार्यकाल में ही उसका टूटना शुरू हुआ। बाद में हालात और बिगड़े। देश की आम अश्वेत आबादी में आज राजनीतिक मोहभंग की स्थिति है। इसके बावजूद उसमें अपना देश पाने का संतोष जरूर है। शायद यही वह चीज है, जिसने निराशा भरे माहौल के बावजूद दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रवाद को जिन्दा रखा है। पर एक समय इस राष्ट्रवाद की ध्वजवाहक रही मंडेला की पार्टी आज पहले के मुकाबले कमजोर हुई है।
    हमने मुक्ति संग्राम का नेतृत्व करने वाली अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस(एएनसी) का मुख्यालय भी देखा। वहां मौजूदा सामाजिक विकृतियों और आम जन की बदहाली को लेकर किसी तरह की चिंता या छटपटाहट कहीं नहीं नजर आई। जोहान्सबर्ग में एक शानदार शापिंग माल के ठीक नीचे खुले मैदान में नेल्सन मंडेला की भव्य मूर्ति लगी हुई है। इस इलाके को अब नेल्सन मंडेला स्क्वायर कहते हैं। देश-विदेश के सैलानी यहां आकर मंडेला की मूर्ति के नीचे फोटो खींचते हैं। मूर्ति किसी स्टेज या चबूतरे पर नहीं खड़ी है। तीन तरफ शापिंग माल की दुकानें हैं और एक तरफ फौव्वारा है। फौव्वारे के ठीक सामने यह मूर्ति समतल स्थान पर स्थापित की गई है, मंडेला के पांव जमीन पर जमे दिखते हैं। लेकिन उनकी पार्टी-एएनसी के पांव अब दक्षिण अफ्रीकी जनता के बीच डगमगा रहे हैं। विडम्बना यह है कि उसका कोई ठोस विकल्प फिलहाल नजर नहीं आता।
    अपने देश के सत्ताधारी नेताओं और दलों की तरह एएनसी के शीर्ष नेता भी आर्थिक सुधारों, खासकर विदेशी पूंजी गठबंधन और नए निवेश की चकाचौंध में मस्त हैं। प्रिटोरिया के एपारथाइड-म्युजियम में रंगभेदी निरंकुश शासन की तमाम तरह की क्रूरताओं के दस्तावेजी-सबूत बड़े जतन से रखे गए हैं। आजादी के लिए फांसी पर चढ़ाए असंख्य योद्धाओं के चित्र भी यहां हैं। वे तीन-चार कतारों में हैं और उनमें कई गोरे योद्धा भी हैं, जिन्होंने गोरे-शासकों की निरंकुशता के खिलाफ लड़ाई लड़ी और शहादत का रास्ता चुना। बदलाव के लिए चीखती आवाजों को वृत्त-चित्रों में सुरक्षित रखे जाने और म्युजियम देखने आए लोगों को बार-बार सुनाए जाने(ताकि वे महसूस कर सकें कि रंगभेदी शासन कितना क्रूर था) के बावजूद आज के सत्ताधारी नेताओं को खदानों और खेतों में दक्षिण अफ्रीकी मजदूरों का बहता खून और पसीना नहीं दिखाई दे रहा है। एपारथाइड म्युजियम में अंदर दाखिल होने के लिए दो दरवाजे हैं। प्रवेश-टिकट पर प्रतीकात्मक ढंग से ‘ह्वाइट’ और ‘ब्लैक’ लिखा मिलता है। यह दर्शकों में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासनातिहास की कटु यादों का एहसास भरने के लिए किया गया है। आप किसी भी दरवाजे से जाएं, अंदर दाखिल होने के लिए रंग या नस्लभेद आधारित कोई पाबंदी नहीं है। लेकिन प्रिटोरिया से लौटते हुए मुझे लगा, दक्षिण अफ्रीका में हर जगह अब भी दो दरवाजे बरकरार हैं—एक आम अश्वेत गरीब आदमी का और दूसरा अमीरों का, जिसमें अब श्वेतों के साथ सत्ताधारी खेमे के कुछ अश्वेत भी शामिल हो गए हैं।
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    (15 नवम्बर, 2012, साप्ताहिक ‘शुक्रवार’ में प्रकाशित)

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

गरीबी नापने का फार्मूला


गरीबी नापने के लिए नया फार्मूला बनेगा

 शुक्रवार, 23 मार्च, 2012 को 18:25 IST तक के समाचार
indian poor
गरीबी रेखा को सिर्फ कैलोरी से जोड़ना नाकाफी माना जा रहा है
केंद्र सरकार ने गरीबी रेखा के फॉर्मूले पर फिर से विचार करने की घोषणा की है. सरकार ने कहा है कि वो एक विशेषज्ञ समूह का गठन करेगी जो देश में गरीबी आकलन के लिए पुराने तरीकों पर पुनर्विचार कर नए रास्ते सुझाएगा.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गुरुवार को कहा, "हमें गरीबी को मापने के लिए एक बहुआयामी तरीका अपनाना होगा. तेंदुलकर कमिटी की रिपोर्ट में में सभी कारक सम्मिलित नहीं है और वो संतोषजनक नहीं है.
योजना आयोग की ओर से गरीबी की नई परिभाषा दिए जाने के बाद जो हंगामा हुआ है, उसके बाद सरकार ने ये घोषणा की है.
इस परिभाषा में कहा गया था कि शहरों में 28 रुपए 65 पैसे प्रतिदिन और गांवों में 22 रुपये 42 पैसे खर्च करने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता.
इसके बाद संसद के दोनों सदनों में हंगामा हुआ था और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया को हटाए जाने की मांग तक की गई थी.

सच्चाइयों से जुड़ी हो

योजना राज्य मंत्री अश्विनी कुमार ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, "हमारा मानना है कि गरीबी रेखा मापने की प्रणाली पर पुनर्विचार की जरूरत है. सरकार ने गरीबी को मापने के तरीकों पर विचार करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का फैसला लिया है जो ऐसे तरीके ढूंढेगा जो देश में गरीबों से जुड़ी मौजूदा सच्चाइयों से जुड़ी हो."
"केवल कैलोरी से व्यक्ति कि गरीबी नहीं तय की जा सकती. किसी व्यक्ति के पास कपड़े नहीं है, घर नहीं है लेकिन लंगर में खाना खा रहा और उसे कैलौरी मिल रही है. लेकिन भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक उसे गरीब नहीं माना जाएगा. ये पैमाना नाकाफी है. व्यक्ति की शिक्षा, शिक्षा की संभावना, उसका वस्त्र, उसका रहन-सहन, मकान इत्यादि का भी गणित करना चाहिए"
भरत झुनझुनवाला, अर्थशास्त्री
सोमवार को योजना आयोग की ओर से जारी रिपोर्ट के मुताबिक 2004-05 से लेकर 2009-10 के दौरान देश में गरीबी सात फीसदी घटी है और गरीबी रेखा 32 रुपये प्रतिदिन से घटकर 28 रुपए 65 पैसे प्रतिदिन बताई गई थी.
अब शहर में 28 रुपए 65 पैसे प्रतिदिन और गांवों में 22 रुपये 42 पैसे खर्च करने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता. इसका मतलब है कि शहरों में महीने में 859 रुपए 60 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में 672 रुपए 80 पैसे से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है.
विश्लेषकों का कहना है कि योजना आयोग की ओर से निर्धारित किए गए ये आंकड़े भ्रामक हैं और ऐसा लगता है कि आयोग का मक़सद ग़रीबों की संख्या को घटाना है ताकि कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फ़ायदा देना पड़े.

कैलोरी से जोड़ना नाकाफी

भारत में ग़रीबों की संख्या पर विभिन्न अनुमान हैं. आधिकारिक आंकड़ों की मानें, तो भारत की 37 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है. जबकि योजना आयोग के ही एक और दस्तावेज़ के मुताबिक़ ये आंकड़ा 77 प्रतिशत हो सकता है.
अभी तक जो व्यवस्था चली आ रही है उसमें व्यक्ति को दिन भर में कितनी कैलोरी उर्जा भोजन से मिलती है उसके आधार पर तय करते हैं कि व्यक्ति गरीब है या नहीं.
अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला का कहना है कि गरीबी रेखा तय करने के लिए ये पैमाना नाकाफी है कि कि कोई व्यक्ति रोजाना कितनी कैलोरी का भोजन कर रहा है.
उनका कहना है, "केवल कैलोरी से व्यक्ति कि गरीबी नहीं तय की जा सकती. किसी व्यक्ति के पास कपड़े नहीं है, घर नहीं है लेकिन लंगर में खाना खा रहा और उसे कैलौरी मिल रही है. लेकिन भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक उसे गरीब नहीं माना जाएगा. ये पैमाना नाकाफी है. व्यक्ति की शिक्षा, शिक्षा की संभावना, उसका वस्त्र, उसका रहन-सहन, मकान इत्यादि का भी गणित करना चाहिए."
अभी सरकार ने नए फार्मूले के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की है.
( बीबीसी हिंदी से साभार )